देहरादून : उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार द्वारा गठित देवस्थानम बोर्ड के खिलाफ भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा दायर जनहित याचिका के मामले में सोमवार को सुनवाई पूरी करते हुए अपना फैसला सुरक्षित रख लिया! सोमवार को याचिकाकर्ता सुब्रमण्यमस्वामी की ओर से इस केस पर अंतिम बहस की जानी थी। सोमवार को स्वामी ने अपनी वकील मनीषा भंडारी के जरिये राज्य सरकार की ओर से उसके वकील एसएन बाबुलकर और एनजीओ रूरल लिटिगेशन एंड एंटिटेलमेंट केंद्र (रूलक) की ओर से उसके वकील कार्तिकेय हरिगुप्ता के द्वारा रखी गई दलीलों के जवाब में अपने अंतिम तर्क कोर्ट के सम्मुख रखे। सुनवाई पूरी होने के बाद कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। निर्णय की घोषणा किसी भी दिन होने की उम्मीद है! ज्ञातव्य है कि अदालत इस मामले की सुनवाई 29 जून से लगातार कर रही थी।
स्वामी की ओर से उनकी वकील मनीषा भंडारी द्वारा कोर्ट में (ऑनलाइन सुनवाई प्रक्रिया के माध्यम से) अपने तर्क रखे गए। हालांकि ऑनलाइन प्रक्रिया के दौरान स्वामी की भी अदालत में भी मौजूदगी रही। इस मामले की सुनवाई हाई कोर्ट की चीफ जस्टिस रमेश रंगनाथन और जस्टिस रमेश सी खुल्बे की बेंच ने की है। अपने अंतिम तर्क को प्रस्तुत करते हुए, स्वामी ने दावा किया कि देवस्थानम बोर्ड का गठन बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री में अति प्राचीन चार धाम मंदिरों सहित 51 हिंदू मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण करने का एक प्रयासह है और यह कार्रवाई संविधान के अनुच्छेद 25, 26 के साथ साथ संविधान के अनुच्छेद 32 का भी उल्लंघन है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि अनुच्छेद 25 भारत के नागरिकों को अंतरात्मा की स्वतंत्रता और मुक्त पेशे, अभ्यास, और धर्म की अनुपालना व प्रचार-प्रसार की स्वतंत्रता देता है जबकि अनुच्छेद 26 धार्मिक मामलों का प्रबंधन करने की स्वतंत्रता से संबंधित है। स्वामी का कहना था कि वह अनुच्छेद 32 के तहत न्याय चाहते हैं जिसके अंतर्गत लोगों को संविधान के अंतर्गत प्रदत्त अधिकारों से वंचित किए जाने पर अदालत से न्याय पाने का अधिकार दिया गया है। स्वामी ने यह भी दावा किया कि राज्य सरकार की कार्रवाई मंदिरों पर अधिकार व कब्जा करने के लिए जनभावनाओं के खिलाफ है।
इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए कि मुख्यमंत्री को देवस्थानम बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया है, स्वामी ने तर्क दिया कि समिति में उन्हें शामिल किए जाने का कोई औचित्य नहीं है। स्वामी ने आगे तर्क दिया कि एक जनप्रतिनिधि होने के नाते मुख्यमंत्री की प्राथमिक जिम्मेदारी सरकार चलाना है न कि मंदिरों का संचालन करना।स्वामी ने अदालत को याद दिलाया कि इन मंदिरों के मामलों के प्रबंधन के लिए देवस्थानम बोर्ड के गठन से पहले ही एक मंदिर समिति मौजूद थी और यह व्यवस्था लंबे समय से लागू थी।
इससे पहले पिछली सुनवाई के दौरान, स्वामी ने यह भी आरोप लगाया था कि राज्य सरकार केदारनाथ और बद्रीनाथ सहित उत्तराखंड में मंदिरों की देखभाल करने वाले पुजारियों और परिवारों के खिलाफ निराधार आरोप लगा रही है। उन्होंने तर्क दिया था कि रावल के साथ-साथ टिहरी दरबार पर भी सीधा आरोप लगाया गया था, लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि टिहरी दरबार को अभी भी नए गठित बोर्ड का हिस्सा क्यों बनाया है। तीर्थयात्री वर्षों से मंदिर में बिना किसी समस्या के जा रहे थे और उसी के संबंध में कभी कोई शिकायत नहीं थी। अगर यह मान भी लिया जाए कि मंदिर की प्रबंध समिति द्वारा आय को लेकर कोई घपला किया गया था तो इसमें शामिल लोगों के खिलाफ उचित कार्रवाई की जा सकती थी, लेकिन ऐसा कभी नहीं किया गया।
उल्लेखनीय है कि इससे पहले राज्य सरकार ने अपनी ओर से की गई बहस में दावा किया था कि जनहित याचिका के पीछे स्वामी का मकसद राजनीतिक लाभ लेना था और देवस्थानम अधिनियम बिल्कुल भी असंवैधानिक नहीं है। सरकार का दावा है कि देवस्थानम बोर्ड अधिनियम से संविधान के अनुच्छेद 25, 26 और 32 का उल्लंघन किसी भी प्रकार से नहीं होता। सरकार ने यह भी दावा किया था कि उसने इस अधिनियम को बड़ी पारदर्शिता के साथ बनाया है। मंदिर में चढ़ावे का पूरा रिकॉर्ड रखा जा रहा है इसलिए यह याचिका निरर्थक है और इसे खारिज कर दिया जाना चाहिए।
अजीब बात है कि, सरकार को एनजीओ रूलक से अपने हक में समर्थन मिला और रूलक ने देवस्थानम बोर्ड के गठन का समर्थन किया था और अपनी ओर से की गई बहस में मनुस्मृति को उद्धृतकरते हुए दावा किया कि राजा सर्वशक्तिमान है और सार्वजनिक हित में कोई भी निर्णय ले सकता है। बद्रीनाथ में भ्रष्टाचार के आरोप ऩए नहीं हैं ऐसे आरोप ब्रिटिश शासनकाल से ही लगते आए हैं।