अरुण प्रताप सिंह
देहरादून, 22 जून: उत्तराखंड सरकार द्वारा चारधाम मंदिरों के प्रबंधन के लिए गठित देवस्थानम बोर्ड के खिलाफ भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी की जनहित याचिका मामले में अंतिम सुनवाई उत्तराखंड उच्च न्यायालय में अब 29 जून को होगी। इस मामले को सोमवार को सुनवाई होनी थी मगर अब अंतिम सुनवाई 29 जून को तय हो गई है। उत्तराखंड हाईकोर्ट में चीफ जस्टिस रमेश रंगनाथन और जस्टिस रमेश खुल्बे की बेंच इस मामले की सुनवाई कर रही है। स्वामी ने अपने वकील मनीषा भंडारी के माध्यम से उत्तराखंड सरकार द्वारा दायर जवाब पर अपना जवाब रविवार को प्रस्तुत किया था।
उल्लेखनीय है कि स्वामी द्वारा दायर याचिका पर नोटिस के जवाब में, उत्तराखंड सरकार ने 11 जून को अदालत के समक्ष अपना जवाब दाखिल किया था जिसमें दावा किया गया था कि स्वामी राजनैतिक व्यक्ति हैं और इस नाते देवस्थानम बोर्ड के प्रबंधन का विरोध करना उनका एक राजनीतिक एजेंडा था। उल्लेखनीय है कि केदारनाथ और बद्रीनाथ मंदिर सहित चार धाम और संबद्ध मंदिरों (कुल 51) के प्रबंधन के लिए कुछ माह पूर्व ही सरकार ने देवस्थानम बोर्ड का गठन किया था। दूसरी ओर इस कदम को स्वामी ने भक्तों के संवैधानिक अधिकारों पर चोट व संविधान का उल्लंघन करार दिया है।
रविवार को दायर अपने जवाब में, स्वामी ने दावा किया कि राज्य सरकार ने संविधान और भक्तों के अधिकारों का उल्लंघन किया है। अपने 49 पन्नों के जवाब में, स्वामी ने कहा कि नया चार धाम देवस्थानम प्रबंधन अधिनियम 2019 पूरी तरह से गैरकानूनी है और ऐसा निर्णय कई सरकारों द्वारा मंदिरों के अधिग्रहण के खिलाफ आए उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के कई फैसलों की भावना के खिलाफ भी है।
यहां यह बताना उचित होगा कि उत्तराखंड सरकार के खिलाफ जिसने स्वामी के आरोपों पर बड़ा ही अस्पष्ट जवाब दाखिल किया था और प्रत्येक आरोप का बिंदुवार जवाब देने के बजाए स्वामी पर राजनीतिक एजेंडे का ही आरोप लगा दिया था। दूसरी ओर स्वामी ने अपने जवाब में सरकारी आरोपों का बिंदुवार जवाब दाखिल किया है। स्वामी ने अपने जवाब में कहा कि राज्य सरकार ने इस मामले पर उनके ट्वीट् को शामिल किया है जिससे साबित होता है कि उनका (स्वामी का) का इस मुद्दे से गहरा ताल्लुक है। स्वामी ने याद दिलाया कि उन्होंने राज्य सरकार के इस कदम का विरोध करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखा था और विवादास्पद मंदिर अधिग्रहण कानून की अवैधता को समझाया था।
अपनी प्रतिक्रिया में, स्वामी ने राज्य सरकार को केदारनाथ और बद्रीनाथ सहित उत्तराखंड में मंदिरों की देखभाल करने वाले पुजारियों और परिवारों पर आरोप लगाने के लिए भी दोषी ठहराया। उन्होंने कहा कि श्रद्धेय रावल पर एक सीधा आरोप लगाया गया था और सम्मानित टिहरी दरबार पर भी आरोप लगाए हालांकि यह समझ नही आ रहा कि अगर सरकार को मंदिरों के प्रबंधन में टिहरी दरबार की भूमिका पर आपत्ति थी तो टिहरी दरबार अभी भी नामांकित सदस्यों में क्यों शुमार है। स्वामी ने इस बात पर जोर दिया कि तीर्थयात्री वर्षों से मंदिर में बिना किसी समस्या के आ जा रहे थे और मंदिर के मामलों के कुप्रबंधन को लेकर कभी कोई शिकायत नहीं की थी। यहां तक कि अगर यह मान भी लिया जाए कि मंदिरों के प्रबंधन या आय को लेकर कोई गड़बड़ की गई थी तो इसमें शामिल लोगों के खिलाफ उचित कार्रवाई की जा सकती थी, लेकिन कभी भी ऐसा नहीं किया गया।
स्वामी ने दावा किया कि राज्य सरकार द्वारा 51 मंदिरों के अचानक अधिग्रहण से याचिकाकर्ता की धार्मिक अंतरात्मा को झटका मिला और अपनी कार्रवाई में सरकार ने इस बात का भी कोई हवाला नहीं दिया, किसने कथित शिकायतें की और क्यों आज तक उन पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। स्वामी ने यह भी बताया कि कई बार न्यायालयों ने फैसला सुनाया है कि मंदिर का अधिग्रहण केवल एक सीमित अवधि के लिए है ताकि प्रबंधन में पाई जाने वाली समस्याओं को दूर किया जा सके और वह स्थायी समाधान नहीं हो सकता।
स्वामी ने अपनी याचिका में तमिलनाडु सरकार द्वारा नटराज मंदिर को हटाने के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय सहित कई निर्णयों का भी जिक्र किया है। स्वामी ने तिरुपति मंदिर के प्रबंधन पर लंबित मामले सहित सरकारों के खिलाफ अपने अन्य मामलों का भी जिक्र किया है।
स्वामी ने दावा किया कि राज्य सरकार ने अपनी प्रतिक्रिया में कई स्थानों पर झूठे दावे किए थे कि जनता द्वारा मंदिर प्रबंधन के खिलाफ आंदोलन किए गए थे। उन्होंने यह भी कहा कि सरकार केदारनाथ में छह साल पुरानी (2013) प्राकृतिक आपदा का हवाला देते हुए अनावश्यक रूप से अधिग्रहण का आधार बनाया है। स्वामी ने यह भी कहा कि राज्य सरकार 1939 अधिनियम को गलत तरीके से उद्धृत कर रही है।