स्वतंत्रता सेनानी पं. राम प्रसाद बिस्मिल के जीवन से जुड़ी रोचक बातें

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लोक संहिता डेस्क

राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ (११ जून १८९७-१९ दिसम्बर १९२७) भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की क्रान्तिकारी धारा के एक प्रमुख सेनानी थे, जिन्हें ३० वर्ष की आयु में ब्रिटिश सरकार ने फाँसी दे दी। वे मैनपुरी षड्यन्त्र व काकोरी-काण्ड जैसी कई घटनाओं में शामिल थे तथा हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के सदस्य भी थे। राम प्रसाद एक कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाभाषी, इतिहासकार व साहित्यकार भी थे। बिस्मिल उनका उर्दू तखल्लुस (उपनाम) था जिसका हिन्दी में अर्थ होता है आत्मिक रूप से आहत। बिस्मिल के अतिरिक्त वे राम और अज्ञात के नाम से भी लेख व कवितायें लिखते थे।

ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी (निर्जला एकादशी) विक्रमी संवत् १९५४, शुक्रवार को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में जन्मे राम प्रसाद ३० वर्ष की आयु में पौष कृष्ण एकादशी (सफला एकादशी), सोमवार, विक्रमी संवत् १९८४ को शहीद हुए। उन्होंने सन् १९१६ में १९ वर्ष की आयु में क्रान्तिकारी मार्ग में कदम रखा था। ११ वर्ष के क्रान्तिकारी जीवन में उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं और स्वयं ही उन्हें प्रकाशित किया। उन पुस्तकों को बेचकर जो पैसा मिला उससे उन्होंने हथियार खरीदे और उन हथियारों का उपयोग ब्रिटिश राज का विरोध करने के लिये किया। ११ पुस्तकें उनके जीवन काल में प्रकाशित हुईं, जिनमें से अधिकतर सरकार द्वारा ज़ब्त कर ली गयीं। बिस्मिल को तत्कालीन संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध की लखनऊ सेण्ट्रल जेल की ११ नम्बर बैरक में रखा गया था। इसी जेल में उनके दल के अन्य साथियोँ को एक साथ रखकर उन सभी पर ब्रिटिश राज के विरुद्ध साजिश रचने का ऐतिहासिक मुकदमा चलाया गया था।

बिस्मिल के पिता मुरलीधर:- उनके आचार-विचार, त्यनिष्ठा व धार्मिक प्रवृत्ति से स्थानीय लोग प्राय: उन्हें “पण्डित जी” कहकर सम्बोधित करते थे। इससे उन्हें एक लाभ यह भी होता था कि प्रत्येक तीज – त्योहार पर दान – दक्षिणा व भोजन आदि घर में आ जाया करता। इसी बीच नारायण लाल को स्थानीय निवासियों की सहायता से एक पाठशाला में सात रुपये मासिक पर नौकरी मिल गयी। कुछ समय पश्चात् उन्होंने यह नौकरी भी छोड़ दी और रेजगारी (इकन्नी-दुअन्नी-चवन्नी के सिक्के) बेचने का कारोबार शुरू कर दिया। इससे उन्हें प्रतिदिन पाँच-सात आने की आय होने लगी। नारायण लाल ने रहने के लिये एक मकान भी शहर के खिरनीबाग मोहल्ले में खरीद लिया और बड़े बेटे मुरलीधर का विवाह अपने ससुराल वालों के परिवार की ही एक कन्या मूलमती से करके उसे इस नये घर में ले आये। शादी पश्चात मुरलीधर को शाहजहाँपुर की नगरपालिका में १५ रुपये मासिक वेतन पर नौकरी मिल गयी। किन्तु उन्हें यह नौकरी पसन्द नहीं आयी। कुछ दिन बाद उन्होंने नौकरी त्याग कर कचहरी में स्टाम्प पेपर बेचने का काम शुरू कर दिया। इस व्यवसाय में उन्होंने अच्छा खासा धन कमाया। तीन बैलगाड़ियाँ किराये पर चलने लगीं व ब्याज पर रुपये उधार देने का काम भी करने लगे।

प्रारम्भिक जीवन एवं शिक्षा:- ११ जून १८९७ को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर शहर के खिरनीबाग मुहल्ले में जन्मे रामप्रसाद अपने पिता मुरलीधर और माता मूलमती की दूसरी सन्तान थे। उनसे पूर्व एक पुत्र पैदा होते ही मर चुका था। बालक की जन्म-कुण्डली व दोनों हाथ की दसो उँगलियों में चक्र के निशान देखकर एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी – “यदि इस बालक का जीवन किसी प्रकार बचा रहा, यद्यपि सम्भावना बहुत कम है, तो इसे चक्रवर्ती सम्राट बनने से दुनिया की कोई भी ताकत रोक नहीं पायेगी।” माता-पिता दोनों ही सिंह राशि के थे और बच्चा भी सिंह-शावक जैसा लगता था अत: ज्योतिषियों ने बहुत सोच विचार कर तुला राशि के नामाक्षर र पर नाम रखने का सुझाव दिया। माता-पिता दोनों ही राम के आराधक थे अत: बालक का नाम रामप्रसाद रखा गया। माँ मूलमती तो सदैव यही कहती थीं कि उन्हें राम जैसा पुत्र चाहिये था। बालक को घर में सभी लोग प्यार से राम कहकर ही पुकारते थे। रामप्रसाद के जन्म से पूर्व उनकी माँ एक पुत्र खो चुकी थीं अत: जादू-टोने का सहारा भी लिया गया। एक खरगोश लाया गया और नवजात शिशु के ऊपर से उतार कर आँगन में छोड़ दिया गया। खरगोश ने आँगन के दो-चार चक्कर लगाये और फौरन मर गया। इसका उल्लेख राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में किया है। मुरलीधर के कुल ९ सन्तानें हुईं जिनमें पाँच पुत्रियाँ एवं चार पुत्र थे। आगे चलकर दो पुत्रियों एवं दो पुत्रों का भी देहान्त हो गया।

बाल्यकाल से ही रामप्रसाद की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। उसका मन खेलने में अधिक किन्तु पढ़ने में कम लगता था। इसके कारण उनके पिताजी तो उसकी खूब पिटायी लगाते परन्तु माँ हमेशा प्यार से यही समझाती कि “बेटा राम! ये बहुत बुरी बात है मत किया करो।” इस प्यार भरी सीख का उसके मन पर कहीं न कहीं प्रभाव अवश्य पड़ता। उसके पिता ने पहले हिन्दी का अक्षर-बोध कराया किन्तु उ से उल्लू न तो उन्होंने पढ़ना सीखा और न ही लिखकर दिखाया। उन दिनों हिन्दी की वर्णमाला में उ से उल्लू ही पढ़ाया जाता था। इस बात का वह विरोध करते थे और बदले में पिता की मार भी खाते थे। हार कर उसे उर्दू के स्कूल में भर्ती करा दिया गया। शायद यही प्राकृतिक गुण रामप्रसाद को एक क्रान्तिकारी बना पाये। लगभग १४ वर्ष की आयु में रामप्रसाद को अपने पिता की सन्दूकची से रुपये चुराने की लत पड़ गयी। चुराये गये रुपयों से उन्होंने उपन्यास आदि खरीदकर पढ़ना प्रारम्भ कर दिया एवं सिगरेट पीने व भाँग चढ़ाने की आदत भी पड़ गयी थी। कुल मिलाकर रुपये – चोरी का सिलसिला चलता रहा और रामप्रसाद अब उर्दू के प्रेमरस से परिपूर्ण उपन्यासों व गजलों की पुस्तकें पढ़ने का आदी हो गया था। संयोग से एक दिन भाँग के नशे में होने के कारण रामप्रसाद को चोरी करते हुए पकड़ लिया गया। खूब पिटाई हुई, उपन्यास व अन्य किताबें फाड़ डाली गयीं लेकिन रुपये चुराने की आदत नहीं छूटी। आगे चलकर जब उनको थोड़ी समझ आयी तभी वे इस दुर्गुण से मुक्त हो सके।

रामप्रसाद ने उर्दू मिडिल की परीक्षा में उत्तीर्ण न होने पर अंग्रेजी पढ़ना प्रारम्भ किया। साथ ही पड़ोस के एक पुजारी ने रामप्रसाद को पूजा-पाठ की विधि का ज्ञान करवा दिया। पुजारी एक सुलझे हुए विद्वान व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व का प्रभाव रामप्रसाद के जीवन पर भी पड़ा। पुजारी के उपदेशों के कारण रामप्रसाद पूजा-पाठ के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करने लगा। पुजारी की देखा-देखी रामप्रसाद ने व्यायाम करना भी प्रारम्भ कर दिया। किशोरावस्था की जितनी भी कुभावनाएँ एवं बुरी आदतें मन में थीं वे भी छूट गयीं। केवल सिगरेट पीने की लत नहीं छूटी। परन्तु वह भी कुछ दिनों बाद विद्यालय के एक सहपाठी सुशीलचन्द्र सेन की सत्संगति से छूट गयी। सिगरेट छूटने के बाद रामप्रसाद का मन पढ़ाई में लगने लगा। बहुत शीघ्र ही वह अंग्रेजी के पाँचवें दर्ज़े में आ गए।

रामप्रसाद में अप्रत्याशित परिवर्तन हो चुका था। शरीर सुन्दर व बलिष्ठ हो गया था। नियमित पूजा-पाठ में समय व्यतीत होने लगा था। इसी दौरान वह मन्दिर में आने वाले मुंशी इन्द्रजीत से उसका सम्पर्क हुआ। मुंशी इन्द्रजीत ने रामप्रसाद को आर्य समाज के सम्बन्ध में बताया और स्वामी दयानन्द सरस्वती की लिखी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने को दी। सत्यार्थ प्रकाश के गम्भीर अध्ययन से रामप्रसाद के जीवन पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा।

स्वामी सोमदेव से भेंट:- रामप्रसाद जब गवर्नमेण्ट स्कूल शाहजहाँपुर में आठवीं कक्षा के छात्र थे तभी संयोग से स्वामी सोमदेव का आर्य समाज भवन में आगमन हुआ। मुंशी इन्द्रजीत ने रामप्रसाद को स्वामीजी की सेवा में नियुक्त कर दिया। यहीं से उनके जीवन की दशा और दिशा दोनों में परिवर्तन प्रारम्भ हुआ। एक ओर सत्यार्थ प्रकाश का गम्भीर अध्ययन व दूसरी ओर स्वामी सोमदेव के साथ राजनीतिक विषयों पर खुली चर्चा से उनके मन में देश-प्रेम की भावना जागृत हुई। सन् १९१६ के कांग्रेस अधिवेशन में स्वागताध्यक्ष पं॰ जगत नारायण ‘मुल्ला’ के आदेश की धज्जियाँ बिखेरते हुए रामप्रसाद ने जब लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की पूरे लखनऊ शहर में शोभायात्रा निकाली तो सभी नवयुवकों का ध्यान उनकी दृढता की ओर गया। अधिवेशन के दौरान उनका परिचय केशव बलिराम हेडगेवार (छ्द्मनाम: केशव चक्रवर्ती), सोमदेव शर्मा व मुकुन्दीलाल आदि से हुआ। बाद में इन्हीं सोमदेव शर्मा ने किन्हीं सिद्धगोपाल शुक्ल के साथ मिलकर नागरी साहित्य पुस्तकालय, कानपुर से एक पुस्तक भी प्रकाशित की जिसका शीर्षक रखा गया था – अमेरिका की स्वतन्त्रता का इतिहास। यह पुस्तक बाबू गनेशप्रसाद के प्रबन्ध से कुर्मी प्रेस, लखनऊ में सन् १९१६ में प्रकाशित हुई थी। रामप्रसाद ने यह पुस्तक अपनी माताजी से दो बार में दो-दो सौ रुपये लेकर प्रकाशित की थी। इसका उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया है। यह पुस्तक छपते ही जब्त कर ली गयी थी बाद में जब काकोरी काण्ड का अभियोग चला तो साक्ष्य के रूप में यही पुस्तक प्रस्तुत की गयी थी। अब यह पुस्तक सम्पादित करके सरफरोशी की तमन्ना नामक ग्रन्थावली के भाग-तीन में संकलित की जा चुकी है और तीन मूर्ति भवन पुस्तकालय, नई-दिल्ली सहित कई अन्य पुस्तकालयों में देखी जा सकती है।

सन १९१५ में भाई परमानन्द की फाँसी का समाचार सुनकर रामप्रसाद ब्रिटिश साम्राज्य को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे, १९१६ में एक पुस्तक छपकर आ चुकी थी, कुछ नवयुवक उनसे जुड़ चुके थे, स्वामी सोमदेव का आशीर्वाद भी उन्हें प्राप्त हो चुका था। एक संगठन उन्होंने पं॰ गेंदालाल दीक्षित के मार्गदर्शन में मातृवेदी के नाम से खुद खड़ा कर लिया था। इस संगठन की ओर से एक इश्तिहार और एक प्रतिज्ञा भी प्रकाशित की गयी। दल के लिये धन एकत्र करने के उद्देश्य से रामप्रसाद ने, जो अब तक ‘बिस्मिल’ के नाम से प्रसिद्ध हो चुके थे, जून १९१८ में दो तथा सितम्बर १९१८ में एक – कुल मिलाकर तीन डकैती भी डालीं, जिससे पुलिस सतर्क होकर इन युवकों की खोज में जगह-जगह छापे डाल रही थी। २६ से ३१ दिसम्बर १९१८ तक दिल्ली में लाल किले के सामने हुए कांग्रेस अधिवेशन में इस संगठन के नवयुवकों ने चिल्ला-चिल्ला कर जैसे ही पुस्तकें बेचना शुरू किया कि पुलिस ने छापा डाला किन्तु बिस्मिल की सूझ बूझ से सभी पुस्तकें बच गयीं।

पण्डित गेंदालाल दीक्षित का जन्म यमुना किनारे स्थित मई गाँव में हुआ था। इटावा जिले के एक प्रसिद्ध कस्बे औरैया के डीएवी स्कूल में अध्यापक थे। देशभक्ति का जुनून सवार हुआ तो शिवाजी समिति के नाम से एक संस्था बना ली और हथियार एकत्र करने शुरू कर दिये। आगरा में हथियार लाते हुए पकड़े गये थे। किले में कैद थे वहाँ से पुलिस को चकमा देकर रफूचक्कर हो गये। बिस्मिल की मातृवेदी संस्था का विलय शिवाजी समिति में करने के बाद दोनों ने मिलकर कई काम किये। एक बार पुन: पकड़े गये, पुलिस पीछे पड़ी थी, भाग कर दिल्ली चले गये जहां उनका प्राणान्त हुआ। बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में पण्डित गेन्दालाल जी का बड़ा मार्मिक वर्णन किया है।
मैनपुरी षडयंत्र में शाहजहाँपुर से ६ युवक शामिल हुए थे जिनके लीडर रामप्रसाद बिस्मिल थे किन्तु वे पुलिस के हाथ नहीं आये, तत्काल फरार हो गये। १ नबम्बर १९१९ को मजिस्ट्रेट बी॰ एस॰ क्रिस ने मैनपुरी षडयन्त्र का फैसला सुना दिया। जिन-जिन को सजायें हुईं उनमें मुकुन्दीलाल के अलावा सभी को फरवरी १९२० में आम माफी के ऐलान में छोड़ दिया गया। बिस्मिल पूरे २ वर्ष भूमिगत रहे। उनके दल के ही कुछ साथियों ने शाहजहाँपुर में जाकर यह अफवाह फैला दी कि भाई रामप्रसाद तो पुलिस की गोली से मारे गये जबकि सच्चाई यह थी कि वे पुलिस मुठभेड़ के दौरान यमुना में छलाँग लगाकर पानी के अन्दर ही अन्दर योगाभ्यास की शक्ति से तैरते हुए मीलों दूर आगे जाकर नदी से बाहर निकले और जहाँ आजकल ग्रेटर नोएडा आबाद हो चुका है वहाँ के निर्जन बीहड़ों में चले गये। वहाँ उन दिनों केवल बबूल के ही वृक्ष हुआ करते थे; और ऊसर जमीन में आदमी तो कहीं दूर-दूर तक दिखता ही नहीं था।

काकोरी-काण्ड के क्रान्तिकारी:- सबसे ऊपर राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ एवं अशफाक उल्ला खाँ नीचे ग्रुप फोटो में क्रमश: 1.योगेशचन्द्र चटर्जी, 2.प्रेमकृष्ण खन्ना, 3.मुकुन्दी लाल, 4.विष्णुशरण दुब्लिश, 5.सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य, 6.रामकृष्ण खत्री, 7.मन्मथनाथ गुप्त, 8.राजकुमार सिन्हा, 9.ठाकुर रोशनसिंह, 10.पं॰ रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, 11.राजेन्द्रनाथ लाहिडी, 12.गोविन्दचरण कार, 13.रामदुलारे त्रिवेदी, 14.रामनाथ पाण्डेय, 15.शचीन्द्रनाथ सान्याल, 16.भूपेन्द्रनाथ सान्याल, 17.प्रणवेशकुमार चटर्जी दि रिवोल्यूशनरी नाम से प्रकाशित इस ४ पृष्ठीय घोषणापत्र को देखते ही ब्रिटिश सरकार इसके लेखक को बंगाल में खोजने लगी। संयोग से शचीन्द्र नाथ सान्याल बाँकुरा में उस समय गिरफ्तार कर लिये गये जब वे यह घोषणापत्र अपने किसी साथी को पोस्ट करने जा रहे थे। इसी प्रकार योगेशचन्द्र चटर्जी कानपुर से पार्टी की मीटिंग करके जैसे ही हावड़ा स्टेशन पर ट्रेन से उतरे कि एच॰ आर॰ ए॰ के संविधान की ढेर सारी प्रतियों के साथ पकड़ लिये गये। उन्हें हजारीबाग जेल में बन्द कर दिया गया। दोनों प्रमुख नेताओं के गिरफ्तार हो जाने से राम प्रसाद बिस्मिल के कन्धों पर उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बंगाल के क्रान्तिकारी सदस्यों का उत्तरदायित्व भी आ गया। बिस्मिल का स्वभाव था कि वे या तो किसी काम को हाथ में लेते न थे और यदि एक बार काम हाथ में ले लिया तो उसे पूरा किये बगैर छोड़ते न थे। पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता पहले भी थी किन्तु अब तो और भी अधिक बढ़ गयी थी। कहीं से भी धन प्राप्त होता न देख उन्होंने ७ मार्च १९२५ को बिचपुरी तथा २४ मई १९२५ को द्वारकापुर में दो राजनीतिक डकैतियाँ डालीं। परन्तु उन्हें उनमें कुछ विशेष धन प्राप्त नहीं हो सका।

इन दोनों डकैतियों में एक-एक व्यक्ति मौके पर ही मारा गया। इससे बिस्मिल की आत्मा को अपार कष्ट हुआ। अन्तत: उन्होंने यह पक्का निश्चय कर लिया कि वे अब केवल सरकारी खजाना ही लूटेंगे, हिन्दुस्तान के किसी भी रईस के घर डकैती बिल्कुल न डालेंगे। शाहजहाँपुर में उनके घर पर ७ अगस्त १९२५ को हुई एक इमर्जेन्सी मीटिंग में निर्णय लेकर योजना बनी और ९ अगस्त १९२५ को शाहजहाँपुर रेलवे स्टेशन से बिस्मिल के नेतृत्व में कुल १० लोग, जिनमें अशफाक उल्ला खाँ, राजेन्द्र लाहिड़ी, चन्द्रशेखर आजाद, शचीन्द्रनाथ बख्शी, मन्मथनाथ गुप्त, मुकुन्दी लाल, केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), मुरारी शर्मा (वास्तविक नाम मुरारी लाल गुप्त) तथा बनवारी लाल शामिल थे, ८ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी में सवार हुए। इन सबके पास पिस्तौलों के अतिरिक्त जर्मनी के बने चार माउज़र पिस्तौल भी थे जिनके बट में कुन्दा लगा लेने से वह छोटी स्वचालित राइफल की तरह लगता था और सामने वाले के मन में भय पैदा कर देता था। इन माउजरों की मारक क्षमता भी साधारण पिस्तौलों से अधिक होती थी। उन दिनों ये माउजर आज की ए॰ के॰ – ४७ रायफल की तरह चर्चित थे। लखनऊ से पहले काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक कर जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ी, क्रान्तिकारियों ने चेन खींचकर उसे रोक लिया और गार्ड के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। उसे खोलने की कोशिश की गयी किन्तु जब वह नहीं खुला तो अशफाक उल्ला खाँ ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गये। मन्मथनाथ गुप्त ने उत्सुकतावश माउजर का ट्रिगर दबा दिया जिससे छूटी गोली अहमद अली नाम के मुसाफिर को लग गयी। वह मौके पर ही ढेर हो गया। शीघ्रतावश चाँदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमड़े के थैले चादरों में बाँधकर वहाँ से भागने में एक चादर वहीं छूट गयी। अगले दिन अखबारों के माध्यम से यह खबर पूरे संसार में फैल गयी। ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन डकैती को गम्भीरता से लिया और डी॰ आई॰ जी॰ के सहायक (सी॰ आई॰ डी॰ इंस्पेक्टर) मिस्टर आर॰ ए॰ हार्टन के नेतृत्व में स्कॉटलैण्ड की सबसे तेज तर्रार पुलिस को इसकी जाँच का काम सौंप दिया।

गोरखपुर जेल में फाँसी:- १६ दिसम्बर १९२७ को बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा का आखिरी अध्याय (अन्तिम समय की बातें) पूर्ण करके जेल से बाहर भिजवा दिया। १८ दिसम्बर १९२७ को माता-पिता से अन्तिम मुलाकात की और सोमवार १९ दिसम्बर १९२७ (पौष कृष्ण एकादशी विक्रमी सम्वत् १९८४) को प्रात:काल ६ बजकर ३० मिनट पर गोरखपुर की जिला जेल में उन्हें फाँसी दे दी गयी। बिस्मिल के बलिदान का समाचार सुनकर बहुत बड़ी संख्या में जनता जेल के फाटक पर एकत्र हो गयी। जेल का मुख्य द्वार बन्द ही रक्खा गया और फाँसीघर के सामने वाली दीवार को तोड़कर बिस्मिल का शव उनके परिजनों को सौंप दिया गया। शव को डेढ़ लाख लोगों ने जुलूस निकाल कर पूरे शहर में घुमाते हुए राप्ती नदी के किनारे राजघाट पर उसका अन्तिम संस्कार कर दिया।

इस घटना से आहत होकर भगतसिंह ने जनवरी १९२८ के किरती (पंजाबी मासिक) में ‘विद्रोही’ छद्मनाम नाम से लिखा: “फाँसी पर ले जाते समय आपने बड़े जोर से कहा – ‘वन्दे मातरम! भारतमाता की जय!’ और शान्ति से चलते हुए कहा – ‘मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे, बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे; जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे, तेरा ही जिक्र और तेरी जुस्तजू रहे!’ फाँसी के तख्ते पर खड़े होकर आपने कहा -मैं ब्रिटिश साम्राज्य का पतन चाहता हूँ!’ उसके पश्चात यह शेर कहा – ‘अब न अह्ले-वल्वले हैं और न अरमानों की भीड़, एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है!’ फिर ईश्वर के आगे प्रार्थना की और एक मन्त्र पढ़ना शुरू किया। रस्सी खींची गयी। रामप्रसाद जी फाँसी पर लटक गये।” अपने लेख के अन्त में भगतसिंह लिखते हैं – “आज वह वीर इस संसार में नहीं है। उसे अंग्रेजी सरकार ने अपना सबसे बड़ा खौफ़नाक दुश्मन समझा। आम ख्याल यही था कि वह गुलाम देश में जन्म लेकर भी सरकार के लिये बड़ा भारी खतरा बन गया था और लड़ाई की विद्या से खूब परिचित था। आपको मैनपुरी षड्यन्त्र के नेता श्री गेंदालाल दीक्षित जैसे शूरवीर ने विशेष तौर पर शिक्षा देकर तैयार किया था। मैनपुरी के मुकदमे के समय आप भागकर नेपाल चले गये थे। अब वही शिक्षा आपकी मृत्यु का कारण बनी। ७ बजे आपकी लाश मिली और बड़ा भारी जुलूस निकला। ‘स्वदेश’ में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार आपकी माता ने कहा था – ‘मैं अपने पुत्र की इस मृत्यु पर प्रसन्न हूँ, दु:खी नहीं। मैं श्री रामचन्द्र जैसा ही पुत्र चाहती थी। वैसा ही मेरा ‘राम’ था। बोलो श्री रामचन्द्र की जय!’

इत्र फुलेल और फूलों की वर्षा के बीच उनकी लाश का जुलूस जा रहा था। दुकानदारों ने उनके शव के ऊपर वेशुमार पैसे फेंके। दोपहर ११ बजे आपकी लाश शमशान-भूमि पहुँची और अन्तिम-क्रिया समाप्त हुई। आपके पत्र का आखिरी हिस्सा आपकी सेवा में प्रस्तुत है – ‘मैं खूब सुखी हूँ। १९ तारीख को प्रात: जो होना है उसके लिये तैयार हूँ। परमात्मा मुझे काफी शक्ति देंगे। मेरा विश्वास है कि मैं लोगों की सेवा के लिये फिर जल्द ही इस देश में जन्म लूँगा। सभी से मेरा नमस्कार कहें। दया कर इतना काम और करना कि मेरी ओर से पण्डित जगतनारायण (सरकारी वकील, जिन्होंने इन्हें फाँसी लगवाने के लिये बहुत जोर लगाया था) को अन्तिम नमस्कार कह देना। उन्हें हमारे खून से लथपथ रुपयों के बिस्तर पर चैन की नींद आये। बुढ़ापे में ईश्वर उन्हें सद्बुद्धि दे।”

रामप्रसाद जी की सारी हसरतें दिल-ही-दिल में रह गयीं। आपने एक लम्बा-चौड़ा ऐलान किया है जिसे संक्षेप में हम दूसरी जगह दे रहे हैं। फाँसी से दो दिन पहले सी.आई.डी. के डिप्टी एस.पी. और सेशन जज मि. हैमिल्टन आपसे मिन्नतें करते रहे कि आप मौखिक रूप से सब बातें बता दो। आपको पन्द्रह हजार रुपया नकद दिया जायेगा और सरकारी खर्चे पर विलायत भेजकर बैरिस्टर की पढ़ाई करवाई जायेगी। लेकिन आप कब इन सब बातों की परवाह करते थे। आप तो हुकूमतों को ठुकराने वाले व कभी-कभार जन्म लेने वालों में से थे। मुकदमे के दिनों आपसे जज ने पूछा था – ‘आपके पास कौन सी डिग्री है?’ तो आपने हँसकर जवाब दिया था – ‘सम्राट बनाने वालों को डिग्री की कोई जरूरत नहीं होती, क्लाइव के पास भी तो कोई डिग्री नहीं थी।’ आज वह वीर हमारे बीच नहीं है, आह!”

फाँसी के बाद क्रान्तिकारी आन्दोलन में तेज़ी;-
१९२७ में बिस्मिल के साथ ३ अन्य क्रान्तिकारियों के बलिदान ने पूरे हिन्दुस्तान के हृदय को हिलाकर रख दिया। ९ अगस्त १९२५ के काकोरी काण्ड के फैसले से उत्पन्न परिस्थितियाँ ने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी। समूचे देश में स्थान-स्थान पर चिनगारियों के रूप में नई-नई समितियाँ गठित हो गयीं। बेतिया (बिहार) में फणीन्द्रनाथ का हिन्दुस्तानी सेवा दल, पंजाब में सरदार भगत सिंह की नौजवान सभा तथा लाहौर (अब पाकिस्तान) में सुखदेव की गुप्त समिति के नाम से कई क्रान्तिकारी संस्थाएँ जन्म ले चुकी थीं। हिन्दुस्तान के कोने-कोने में क्रान्ति की आग दावानल की तरह फैल चुकी थी। कानपुर से गणेशशंकर विद्यार्थी का प्रताप व गोरखपुर से दशरथ प्रसाद द्विवेदी का स्वदेश जैसे अखबार इस आग को हवा दे रहे थे।

काकोरी काण्ड के एक प्रमुख क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आजाद, जिन्हें राम प्रसाद बिस्मिल उनके पारे जैसे चंचल स्वभाव के कारण क्विक सिल्वर कहा करते थे, पूरे हिन्दुस्तान में भेस बदल कर घूमते रहे। उन्होंने भिन्न-भिन्न समितियों के प्रमुख संगठनकर्ताओं से सम्पर्क करके सारी क्रान्तिकारी गतिविधियों को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया। ८ व ९ सितम्बर १९२८ में फिरोजशाह कोटला दिल्ली में एच॰ आर॰ ए॰, नौजवान सभा, हिन्दुस्तानी सेवा दल व गुप्त समिति का विलय करके एच॰ एस॰ आर॰ ए॰ नाम से एक नयी क्रान्तिकारी पार्टी का गठन हुआ। इस पार्टी को बिस्मिल के बताये रास्ते पर चलकर ही देश को आजाद कराना था किन्तु ब्रिटिश साम्राज्य के दमन चक्र ने वैसा भी नहीं होने दिया। नोएडा-ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस वे के समीप स्थित नलगढ़ा गाँव में रखा ऐतिहासिक पत्थर जिसका प्रयोग भगतसिंह ने बम बनाने के लिये किया।

३० अक्टूबर १९२८ को साइमन कमीशन का विरोध करते हुए लाला लाजपत राय डिप्टी सुपरिण्टेण्डेण्ट जे॰ पी॰ साण्डर्स के बर्बर लाठीचार्ज से बुरी तरह घायल हुए और १७ नवम्बर १९२८ को उनकी मृत्यु हो गयी। इस घटना से आहत एच॰ एस॰ आर॰ ए॰ के चार युवकों ने १७ दिसम्बर १९२८ को लाहौर जाकर दिन दहाड़े साण्डर्स का वध कर दिया और फरार हो गये। साण्डर्स हत्याकाण्ड के प्रमुख अभियुक्त सरदार भगत सिंह को पुलिस पंजाब में तलाश रही थी जबकि वह यूरोपियन के भेस में कलकत्ता जाकर बंगाल के क्रान्तिकारियों से बम बनाने की तकनीक और सामग्री जुटाने में लगे हुए थे। दिल्ली से २० मील दूर ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस वे के निकट स्थित नलगढ़ा गाँव में रहकर भगत सिंह ने दो बम तैयार किये और बटुकेश्वर दत्त के साथ जाकर ८ अप्रैल १९२९ को दिल्ली की सेण्ट्रल असेम्बली में उस समय विस्फोट कर दिया जब सरकार जन विरोधी कानून पारित करने जा रही थी। इस विस्फोट ने बहरी सरकार पर भले ही असर न किया हो परन्तु समूचे देश में अद्भुत जन-जागरण का काम अवश्य किया।

बम विस्फोट के बाद दोनों ने “इंकलाब! जिन्दाबाद!!”“साम्राज्यवाद! मुर्दाबाद!!” के जोरदार नारे लगाये और एच॰ एस॰ आर॰ ए॰ के पैम्फलेट हवा में उछाल दिये। असेम्बली में मौजूद सुरक्षाकर्मियों – सार्जेण्ट टेरी व इन्स्पेक्टर जॉनसन ने उन्हें वहीं गिरफ्तार करके जेल भेज दिया। यह सनसनीखेज खबर अगले ही दिन समूचे देश में फैल गयी। ४ मई १९२९ के अभ्युदय में इलाहाबाद से यह समाचार छपा – ऐसेम्बली का बम केस: काकोरी केस से इसका सम्बन्ध है। आई॰ पी॰ सी॰ की दफा ३०७ व एक्सप्लोसिव एक्ट की धारा ३ के अन्तर्गत इन दोनों को उम्र-कैद का दण्ड देकर अलग-अलग जेलों में रक्खा गया। जेल में राजनीतिक बन्दियों जैसी सुविधाओं की माँग करते हुए जब दोनों ने भूख हड़ताल शुरू की तो उन दोनों का सम्बन्ध साण्डर्स-वध से जोड़ते हुए एक और केस कायम किया गया जिसे लाहौर कांस्पिरेसी केस के नाम से जाना जाता है। इस केस में कुल २४ लोग नामजद हुए, इनमें से ५ फरार हो गये, १ को पहले ही सजा हो चुकी थी, शेष १८ पर केस चला। इनमें से एक – यतीन्द्रनाथ दास की बोस्र्टल जेल लाहौर में लगातार भूख हड़ताल करने से मृत्यु हो गयी, शेष बचे १७ में से ३ को फाँसी, ७ को उम्र-कैद, एक को ७ वर्ष व एक को ५ वर्ष की सजा का हुक्म हुआ। तीन को ट्रिब्यूनल ने रिहा कर दिया। बाकी बचे तीन अभियुक्तों को अदालत ने साक्ष्य न मिलने के कारण छोड़ दिया।

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