माननीय न्यायपालिका

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सुरेंद्र गौड़

किसी भी राष्ट्र का लोकतांत्रिक ढांचा कुछ विशिष्ट स्तंभों पर आधारित होता है यथा स्वतंत्र न्यायपालिका ,ऊर्जावान कार्यपालिका ,जीवंत संसद तथा पक्षपात हीन प्रेस। पिछले 30 वर्षों में मैंने दर्जनों विद्वानों के लेखों में पढा तथा टेलीविजन वाद -विवादों में सुना कि न्यायपालिका लाखों- करोड़ों भारतीयों के लिए न्याय की अंतिम उम्मीद साबित हो रही है।लेकिन यदि कोई नागरिक देश की न्यायिक व्यवस्था से ही निराशा महसूस करें तो ? पिछले 70 वर्षों में भारतीय न्यायपालिका ने मार्गो पर जो पद चिन्ह छोड़े हैं उनकी वजह से ऐसा प्रश्न उठना स्वाभाविक है। भारतीय न्यायपालिका अंतिम समाधान केंद्र के रूप में उभरी ही क्यों ॽ संभवत इसका कारण प्रशासन में व्याप्त भयावह भ्रष्टाचार ,कुछ जनप्रतिनिधियों का अनुत्तरदायी व्यवहार तथा प्रेस का स्वार्थ पूर्ण तथा पक्षपात पूर्ण व्यवहार रहा हो?

लेकिन इस देश में न्यायिक प्रशासन स्वयं भी बहुत से प्रश्न खड़े करता है। एक प्रश्न या चिंता” न्यायालय की अवमानना” नामक अवधारणा से संबंधित है।”न्यायालय की अवमानना “नामक यह अवधारणा ऐतिहासिक कारणों से अस्तित्व में आई थी। किसी समय माननीय न्यायाधीशों को निरंकुश शासकों के अंतर्गत सेवा देनी होती थी। उन परिस्थितियों में उन्हें सुरक्षा चक्र के रूप में यह सुविधा उपलब्ध कराई गई थी। परंतु आज के लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस प्रकार के सुरक्षा चक्र की आवश्यकता मालूम नहीं होती। इस देश में नागरिक प्रधानमंत्री तथा सरकारी अधिकारियों की आलोचना करने के लिए स्वतंत्र हैं। ऐसी स्थिति में जजों को अतिरिक्त सुरक्षा चक्र से सम्मानित करना अनावश्यक लगता है। यदि कोई व्यक्ति या संस्था माननीय न्यायाधीश को धमकाने का या नुकसान पहुंचाने का प्रयास करता है तो उस व्यक्ति या संस्था को भारतीय अपराधिक दंड संहिता के अंतर्गत सजा दिलवाई जा सकती है।

यदि लोकतांत्रिक तरीके से की गई आलोचना किसी माननीय न्यायाधीश के न्यायिक निर्णयों को प्रभावित करती है तो उस स्थिति में माननीय न्यायाधीश के बौद्धिक तथा भावनात्मक योग्यता पर प्रश्न उठाए जाने चाहिए। लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी प्रकार का विशेषाधिकार जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अनावश्यक रूप से सीमित करता हो स्वीकार करना ठीक नहीं लगता। यदि कोई व्यक्ति इस विशेषाधिकार को समर्थन देता है तो उसे एक प्रश्न का उत्तर अवश्य देना चाहिए। प्राचीन भारत में ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों को प्राप्त विशेष अधिकारों में गलत क्या था? ब्राह्मण तथा क्षत्रिय उस युग में शासक वर्ग में सम्मिलित थे । यदि माननीय सर्वोच्च न्यायालय” न्यायालय की अवमानना “नामक अवधारणा को स्वत ही ध्वस्त कर दें तो इसका दूरगामी परिणाम होगा । ऐसा होने पर राजनीतिक तथा प्रशासनिक वर्ग में शामिल मालिकों के लिए अपनी कुलीन प्रवृत्तियों को संरक्षण देना मुश्किल हो जाएगा।

भारतीय न्यायपालिका को ध्यान में रखा जाए तो संवेदनशील भारतीय के हृदय मैं पीड़ा की सुनामी हिलोरें लेंगे यदि जम्मू कश्मीर के पिछले 70 वर्षों के इतिहास को देखा जाए! आज हर जागृत भारतीय को पता है की धारा 370 राष्ट्रपति महोदय के आदेश से भारतीय संविधान में प्रविष्ट कराई गई थी। इस प्रावधान के चलते लाखों हिंदुओं ने जम्मू कश्मीर में असीम दुख झेले। इसके चलते जम्मू कश्मीर की लड़कियों के बहुत से अधिकार छीन लिए गए थे। माननीय सर्वोच्च न्यायालय तथा जम्मू कश्मीर के उच्च न्यायालय इन पीड़ित लोगों को उनके अधिकार दिलवाने में पूर्णतया असफल साबित हुए।

वर्तमान में भारतवर्ष राष्ट्रीय लोकतांत्रिक अलायंस द्वारा शासित है। इसका नेतृत्व निवर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर रहे हैं। अपने प्रथम कार्यकाल में उनकी सरकार ने संपत्ति के कागजातों को आधार से एकीकृत करने का प्रयास किया था! मेरे जैसे मध्यमवर्ग तथा गरीब वर्ग के लोगों ने हृदय से इस प्रयास को समर्थन दिया था। कुछ लोगों ने इस प्रयास को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। मुझे लगा था की सर्वोच्च न्यायालय भारतवर्ष के संविधान की छत्र छाया में इस प्रयास को कानूनी संरक्षण देगा। मेरे लिए आश्चर्यजनक रहा की माननीय जजों ने इस प्रयास को अवैध घोषित कर दिया। इस प्रयास को अवैध करने का कारण था की डाटा को सुरक्षित रखना दुष्कर कार्य है।

इसके अलावा व्यक्तिगत स्वतंत्रता को भी सर्वोच्च समझा गया। भारतीय दर्शन के अनुसार नश्वर संसार में कुछ भी सुरक्षित नहीं है। अधुनातन विज्ञान भी अति सुरक्षा की सोच को समर्थन नहीं दे पाता है। इस देश में डेटा की सुरक्षा की आड़ में कुछ लोग भ्रष्टाचार के कैंसर को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। मुझे लगता है की माननीय जजों को चाहिए था कि वह राजनीतिक कार्यपालिका तथा स्थाई कार्यपालिका को सलाह देते की डाटा की सुरक्षा को अभेद्य करने का प्रयास किया जाए। इस बारे में माननीय न्यायाधीश आदेश भी जारी कर सकते थे।

भारत में शिक्षकों को काफी छुट्टियां मिलती है। उनके कार्य दिवस 210 के आसपास होते हैं। कुछ पब्लिक स्कूलों में कार्य देशों की संख्या 240 या 250 भी हो सकती है। अन्य नौकरियों में संलग्न लोगों के लिए शिक्षकों की छुट्टियां ईर्ष्या का विषय होती है। मैं यह जानकर हैरान हूं की सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश सामान्यता वर्ष में180 दिन कार्य करते हैं। उनका ग्रीष्मावकाश लगभग 30 दिनों का होता है जो उपनिवेशवादी परंपरा का परिणाम है। हम जानते हैं कि देश की न्याय व्यवस्था लगभग 3.3 करोड़ मामलों से कुचली पड़ी है। क्या उपनिवेशवादी ग्रीष्म अवकाश के समापन का उचित समय नहीं आया है?

भारतीय संविधान में नीति निर्देशक सिद्धांतों का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। एक सिद्धांत के अनुसार भारतवर्ष में समान कार्य के लिए समान वेतन मिलना चाहिए। देश के कई राज्यों ने अतिथि शिक्षकों की नियुक्ति की है। इन अतिथि शिक्षकों को बेहद कम वेतन पर रखा जाता है। स्थाई शिक्षक इन अतिथि शिक्षकों को हेय दृष्टि से देखते हैं। अतिथि शिक्षक लगभग उतना ही कार्य करते हैं जितना स्थाई शिक्षक करते हैं। इस मामले में देश की राजनीतिक कार्यपालिका तथा सर्वोच्च न्यायालय दोनों ने नीति निर्देशक सिद्धांत के विपरीत कार्य किया है।

इसी प्रकार पब्लिक स्कूलों में कर्मचारियों का यथेष्ट दोहन किया जाता है। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड तथा राज्य के शिक्षा विभागों के अनुसार पब्लिक स्कूलों में कार्य करने वाले कर्मचारियों को राज्य के मानक के अनुसार वेतन मिलना चाहिए। दूसरे शब्दों में पब्लिक स्कूलों के कर्मचारियों को उतना ही वेतन मिलना चाहिए जितना राज्य के स्कूलों में मिलता है। कई बार पब्लिक स्कूलों के कर्मचारियों ने उच्च न्यायालय के स्तर पर केस लड़े तथा जीते! परंतु सर्वोच्च न्यायालय मैं उन्हें परास्त होना पड़ा। सर्वोच्च न्यायालय अक्सर सरकारी कर्मचारियों को लिखित नियमों के अनुसार कार्य करने के लिए मजबूर तथा प्रेरित करता है लेकिन पब्लिक स्कूलों के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने नियामक संस्थाओं के अधिकारियों को लिखित नियमों के विपरीत कार्य करने के लिए प्रेरित किया। मुझे लगता है कि माननीय न्यायाधीशों को चाहिए की वे पब्लिक स्कूलों के कर्मचारियों के वेतन संबंधी नियमों को समाप्त करवा दें जिससे कि भ्रम की स्थिति पैदा ना हो ।

भारतीय न्यायपालिका से संबंधित एक अन्य चिंता माननीय न्यायाधीशों को उनके पद से हटाए जाने के बारे में है। हम जानते हैं की सर्वोच्च स्तर पर माननीय न्यायाधीश को साबित गलत आचरण अथवा अक्षमता के आधार पर ही पद से हटाया जा सकता है। भूतकाल में कई बार कुछ माननीय न्यायाधीशों पर आरोप लगाए गए । परंतु किसी भी तरह का निर्णायक कदम नहीं उठाया जा सका। निर्णायक निर्णय न लेने के पीछे राजनीतिक कार्यपालिका अधिक जिम्मेदार रही थी जो विभिन्न तरह के राजनीतिक दबावों के चलते निश्चित कदम उठाने से हिचक गई। जबकि सर्वोच्च न्यायपालिका ने स्वयं ही इस तरह के मामलों में निर्णायक कदम उठाने के लिए स्थितियां बना दी थी !

संभवत न्यायिक व्यवस्था को आकने का सर्वोत्तम मानदंड है समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ठोस अस्तित्व ! हम जानते हैं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित नहीं हो सकती तथा उसे सम्मानित तरीके से इस्तेमाल किया जाना चाहिए । एक सुसंस्कृत समाज में नागरिकों को अधिकार है कि वह प्रश्न उठा सकें, प्रश्नों के जवाब दे सकें तथा वाद विवादों में खुलकर हिस्सेदारी कर सकें। ऐसा करते समय उन्हें किसी का भय या लालच नहीं होना चाहिए। लेकिन वास्तविकता क्या है? यदि आप इस देश में अहिंसा के पुजारी की आलोचना कर दें तो आपकी कुटाई हो सकती है। यदि आप किसी जनप्रतिनिधि का विरोध करें तो आप सार्वजनिक पिटाई के पात्र बन सकते हैं। कुछ दिनों पहले मैंने एक वीडियो देखा। यह वीडियो एक टीवी चैनल का था। इस वीडियो के अनुसार एक धर्मांध धर्म नेता स्पष्ट उद्घोषणा कर रहा था की यदि किसी व्यक्ति ने उसके धर्म, संदेश वाहक तथा संदेश पर प्रश्न खड़े किए तो वह कहने वाले की गर्दन काट देगा। यह धमकी उस व्यक्ति ने कई बार दी। इस प्रकार की अलोकतांत्रिक तथा संस्कृति हीन वाद विवाद हर जगह प्रचलित है। ऐसे वाद विवादों का सनातन मूल्यों से तुलना करो जहां एक छोटे बच्चे को भी मूलभूत प्रश्न उठाने का अधिकार था। वहां व्यक्ति को सृष्टि को बनाने वाले, सृष्टि को चलाने वाले तथा सृष्टि विध्वंसक से हर प्रकार के प्रश्न पूछने का अधिकार था। सनातन संस्कृति के उपनिषद विविध प्रकार के प्रश्नों तथा उनके उत्तरों से भरे पड़े हैं। आप उन्हें स्वीकारें या अस्वीकार करें !महान ग्रीक विचारक प्लेटो के अनुसार अच्छा शिक्षक वह है जो शिष्य को प्रश्न उठाने की कला सिखा दे। उसने प्रश्नों पर किसी भी तरह की पाबंदी नहीं लगाई ! मुझे लगता है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय को इस प्रकार के मामले में स्वत संज्ञान लेना चाहिए तथा अंतिम तथा समेकित निर्णय देना चाहिए।

न्याय व्यवस्था के बारे में अंतिम चिंता जो हृदय को आंदोलित करती है वह है की किस प्रकार सरकार की कार्यपालिका तथा समाज के विशिष्ट जनों के सत्कर्म या धत कर्म न्यायपालिका के समय तथा ऊर्जा को सोख लेते हैं। इस प्रकार के मामलों से निपटने के लिए पृथक रूप से अतिरिक्त जजों की नियुक्ति होनी चाहिए। वर्तमान मैं न्यायाधीशों कि जो संख्या सुनिश्चित की गई है वह सामान्य जनों को न्याय उपलब्ध कराने का भरसक प्रयास करें। इस कार्य को करने के लिए राजनीतिक कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के बीच सामंजस्य की आवश्यकता है।

लोकतांत्रिक ढांचे की सफलता के लिए आवश्यक है की सरकार का प्रत्येक अंग स्व सुधार के प्रयास करता रहे। सर्वोच्च न्यायालय ने जनहित याचिका, संविधान की मूल अवधारणा तथा शून्य प्राथमिकी जैसी संकल्पनाओं को अस्तित्व में लाकर तथा उन्हें मजबूत करके जनमानस तक न्याय पहुंचाने का भरसक प्रयत्न किया है। लेकिन कई अन्य मामलों में देश की न्यायपालिका उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई । न्यायपालिका की असफलता बहुत हद तक राजनीतिक कार्यपालिका तथा प्रशासनिक कार्यपालिका के असहयोग ,अक्षमता या उदासीनता का परिणाम रही है। इस देश का नागरिक होने के नाते मैं उम्मीद करता हूं कि भारतीय न्यायपालिका भविष्य में भी नित्य नूतन प्रयोग करती रहेगी । यदि माननीय न्यायाधीशों के निर्णय राष्ट्र तथा जनमानस के हित में होंगे तो सरकार के अन्य अंग मजबूरी मैं ही सही उन निर्णयों के साथ खड़े होंगे।

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