सुरेंद्र देव गौड़
अध्यात्म के महासागर में असंख्य रत्नों का भंडार है। इन रत्नों की झलक शंकर, शंकराचार्य, राम, कृष्ण, गौतम बुध, महावीर स्वामी, पतंजलि ,कबीर, रैदास, गुरु गोरखनाथ, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, ओशो, सद्गुरु इत्यादि जन सामान्य के सामने समय-समय पर लाते रहे हैं ! इन सभी रहस्यदर्शियो के अनुसार सभी धर्मों की उत्पत्ति का स्रोत एक ही है। लेकिन बौद्धिक आयाम तक आते-आते विभेद प्रारंभ हो जाता है। जब रहस्यवाद सामाजिक आयाम धारण करता है तब मनुष्य की भेड़ वृत्ति के कारण आपाधापी तथा सामूहिक संघर्ष का उद्भव हो जाता है। हमें अक्सर सिखाया जाता है कि सभी धर्म समान है तथा सभी धर्म समान शिक्षा देते हैं। क्या यह निष्कर्ष उचित है? जैसा की प्रारंभ में लिखा है कि स्रोत के तल पर समानता है लेकिन अभिव्यक्ति के तल पर असमानता है । फलतः शिक्षाओं में भी भेद स्वाभाविक होगा।
अपने इस लेख में लेखक बौद्धिक तथा सामाजिक स्तर पर दिखाई देने वाले भेदों को सामने लाने का प्रयास करेगा:
1- देशज धर्मो के अनुसार सृष्टि स्वत:स्फूर्त है। इसको प्रारंभ करने, चलाने, रूपांतरित करने या विध्वंस करने के लिए मानव- सदृश्य ईश्वर की आवश्यकता नहीं है। विदेशी धर्मो के अनुसार मानव- सदृश्य ईश्वर ने ही सृष्टि बनाई है। सृष्टि बनी क्यों ? अथवा सृष्टि बनाई क्यों गई? भारतीय दर्शन के अनुसार सृष्टि का बनना, चलना या विनाश होना प्रयोजन हीन है। इसके विपरीत विदेशी धर्म मानते है कि सृष्टि मनुष्य के लिए बनाई गई है अर्थात सृष्टि मानव केंद्रित है।
2- भारतीय धर्मों में मानव- सदृश्य ईश्वर की कल्पना नहीं है। यहां परम चेतना की संकल्पना है। परम चेतना मैं लीलाएं घटती हैं। यह परम चेतना किसी के प्रति प्रेम पूर्ण या द्वेष पूर्ण नहीं होती। विदेशी धर्मों के अनुसार मानव सदृश्य ईश्वर मनुष्य के प्रति द्वेष व प्रेम का भाव रख सकता है। इसके परिणाम स्वरूप दंड व पुरस्कार की अवधारणाएं भी विदेशी धर्मों में उपलब्ध है !
3- विदेशी धर्मों में संदेशवाहक की कल्पना रही है! मानव सदृश्य ईश्वर किसी विशेष व्यक्ति पर कृपा करता है। उस विशेष व्यक्ति के माध्यम से साधारण जनों तक संदेश पहुंचाया जाता है। यहां विशेष व्यक्ति के प्रयासों अथवा साधनों पर ध्यान नहीं दिया जाता है ! इसके विपरीत भारतीय धर्मों में गुरु/ संत /बुद्ध की संकल्पना है ! इस स्थिति तक पहुंचने के लिए, भारतीय धर्मों के अनुसार, कठोर तप या साधना की जरूरत होती है। इस साधना के माध्यम से यह व्यक्ति परम चेतना से जुड़ने का प्रयास करता है!
4- विदेशी धर्मों में परमपिता तथा संदेशवाहक के मध्य संपर्कों के कारण या तरीकों पर बात नहीं की जाती है । भारतीय धर्मों में परम चेतना तथा संत के संपर्कों के कारणों तथा तरीकों पर बेहद विस्तार से बात की गई है। इसके लिए विविध मार्ग यथा योग मार्ग, कर्म मार्ग, ज्ञान मार्ग तथा भक्ति मार्ग बताए गए हैं! योग मार्ग में ही लगभग 108 सूक्ष्म मार्गों का जिक्र है। ये सभी मार्ग जिज्ञासु को एक ही मंजिल तक पहुंचाते हैं।
5- विदेशी धर्मों में संभावित मार्गों की चर्चा ही नहीं है। इससे एकांगी सोच का विकास होता है । इसके विपरीत भारतीय मनीषियों ने अनेकानेक मार्गों का अन्वेषण तथा चिंतन किया । भारतवर्ष में स्वभावतः समन्वय वादी दृष्टिकोण विकसित हो सका।
6- भारतीय मनीषा के अनुसार प्रत्येक मनुष्य परम चेतना का अंश है । प्रकारांतर से प्रत्येक मनुष्य को परम चेतना ही घोषित कर दिया गया है। प्रत्येक मानव स्वयं ईश्वर से संपर्क साध सकता है । इस प्रयास में वह जिज्ञासु कहलाएगा। जिज्ञासु परम चेतना के साथ मित्रवत अठखेलियां कर सकता है। यहां संदेश वाहक दूसरों को ईश्वर प्राप्ति के अयोग्य नहीं समझता । इस अर्थ में भारतीय धर्म आध्यात्मिक लोकतंत्र की स्थापना करते हैं। राजनीतिक लोकतंत्र में मनुष्य एक गिना जाता है जबकि आध्यात्मिक लोकतंत्र में प्रत्येक मनुष्य परम चेतना ही घोषित कर दिया गया। मनुष्य का इससे अधिक सम्मान और क्या हो सकता है? विदेशी धर्मों में स्तरीकरण स्पष्ट है। वहां गौरीशंकर शिखर पर मानव सदृश्य ईश्वर विराजमान है। उससे निचले शिखर पर संदेशवाहक विराजमान है। सामान्य जन इन शिखरों तक पहुंचने की कल्पना करने के लिए स्वतंत्र नहीं है। यह विचार आध्यात्मिक गुलामी का संदेश देता दिखाई देता है।
7- भारतीय धर्मों के अनुसार अन्वेषक प्रश्नों से भरा होता है। हमारे धर्मों में अन्वेषक तथा प्रश्न पर्यायवाची लगते हैं। उसे अधिकार है कि वह गुरु के सामने हर प्रकार के प्रश्न उठा सके। अधिकांश प्रश्न सतही होंगे लेकिन समय के साथ मूल स्रोत की तरफ मुड़ते जाएंगे। वे अधिक गहराई तक उतरेंगे तथा गुरु व शिष्य दोनों के मध्य संशय के बादल छॅटते चले जाएंगे। विवाद एवं संवाद की थकाऊ प्रक्रिया के पश्चात अन्वेषक प्रश्न हीनता की स्थिति में आता है जिससे श्रद्धा का प्रकाश उत्पन्न होता है । इसके विपरीत विदेशी धर्मों में सतही प्रश्न ही उठाए जा सकते हैं तथा मौलिक प्रश्नों को उठाना धर्म विरुद्ध माना जाता है। परिणाम स्वरूप शंकाओं को कुचल दिया जाता है। इससे प्रकृति प्रदत बौद्धिक स्फूर्ति का विनाश हो जाता है। बाहर से देखने पर यह मानसिक स्थिति श्रद्धा के सदृश ही दिखाई देती है लेकिन इसमें अंधकार का शासन रहता है ।
8- विदेशी धर्मों में एक संदेश वाहक, एक पुस्तकपुस्तक तथा एक मार्ग के चलते सरलता तथा एकरूपता दिखाई देती है। सरल हृदय वाले सीधे-साधे लोगों को यह आकर्षक लग सकता है । लेकिन इनमें अन्य विचारों,अन्य रूपों, अन्य संगठनों, अन्य दर्शनों को सहने की सामर्थ नहीं होती है। भारतीय धर्मों में अनेकानेक मार्ग थे फलतः अन्य के प्रति दुर्भावना की संभावना कम हो जाती थी।
जब एक भारतीय व्यक्ति कहता है कि सभी धर्म एक ही हैं अथवा सभी धर्म समान शिक्षा प्रदान करते हैं तो वह अपनी अज्ञानता का प्रदर्शन मात्र है । हो सकता है कि ऐसा कहकर वह व्यक्ति सामाजिक शिष्टाचार निभा रहा हो । भारतीय धर्मों पर विश्वास रखने वाले लोगों को यह समझना होगा कि भारत में उत्पन्न धर्म विराट प्राकृतिक वन संपदा के समान है जिसमें हर प्रकार के पौधे को उगने तथा फलने -फूलने की स्वतंत्रता है। उस वन में लताएं हैं ,कंदमूल हैं ,झाड़ियां हैं ,संभवतः हानिकारक पादप भी हो! लेकिन प्राकृतिक वन का अर्थ ही यही होता है यहां मनुष्य द्वारा थोपी गई एकरूपता नहीं है । इस व्यवस्था में क्षुद्र तथा विपरीत विचारों को भी स्थान दिया जाता है। इसी प्रकार के धर्म को समन्वय वादी कहा जा सकता है। आजकल संचार माध्यमों में तथा अन्यत्र अनगिनत अन- देखे तरीकों से भारतीय धर्मो के खिलाफ युद्ध लड़ा जा रहा है। ऐसे युद्ध में विजय श्री प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि भारतीय धर्मों के प्रति श्रद्धा रखने वाले व्यक्तियों को वस्तुस्थिति समझनी होगी तथा अनावश्यक शिष्टाचार से बचना होगा। वस्तु स्थिति को समझने में की गई गलती या अनावश्यक शिष्टाचार वैचारिक पराजय को आमंत्रित कर रहा है।