अभिशप्त भारत

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सुरेंद्र देव गौड़

किसी राष्ट्र के वर्तमान को समझने के लिए अतीत को देखना बेहद आवश्यक होता है। पूर्वजों की गलतियां वर्तमान को कष्टदाई बनाती हैं तथा वर्तमान नेतृत्व की गलतियां भविष्य की पीढ़ियों को अंधकार में धकेल सकती हैं। केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख की गलवान घाटी में 15 जून 2020 की रात को भारतवर्ष तथा चीन के सैनिकों के बीच जो हिंसक संघर्ष हुआ उसका एक ऐतिहासिक आधार है। यहां एक बात चौंकाने वाली है की जब भारतीय सेना के कमांडिंग ऑफिसर पर हमला हुआ तो अन्य भारतीय सैनिकों ने गोली क्यों नहीं चलाई? पहले की किसी संधि के अनुसार दोनों ही सेना के अधिकारी या सैनिक जब मिलते हैं तो वे हथियारों के बिना ही मिलते हैं। इस संधि में लाठी-डंडों, पत्थरों इत्यादि को हथियार नहीं माना गया है। क्या भारतीय सैनिक बिना हथियारों के उस क्षेत्र में चीनी सैनिकों से बातचीत कर रहे थे? कुछ ऐसे पुराने वीडियोस न्यूज़ चैनल्स पर दिखाए जा चुके हैं या सोशल मीडिया पर उपलब्ध है जिसमें दोनों ही सेनाओं के सैनिक हाथापाई करते हुए दिखाई देते हैं लेकिन उनके कंधों पर बंदूकें भी स्पष्ट देखी जा सकती है। वस्तु स्थिति क्या है यह स्पष्ट करना सरकार तथा सैनिक नेतृत्व की जिम्मेदारी बनती है।

जैसा कि मैंने प्रारंभ में कहा कि वर्तमान को समझने के लिए अतीत में झांकना बेहद जरूरी होता है। पाठक यह सोचें कि यदि अरब हमलावर कासिम के विरुद्ध लड़ते समय सिंध के राजा दाहिर के सैनिकों ने मंदिर में लगी पताका के गिरने को दैवीय आपदा समझ कर मनोवैज्ञानिक हार ना स्वीकारी होती तो संभवतः पाकिस्तान का अस्तित्व संभव ही ना होता। यदि पृथ्वीराज चौहान ने युद्ध भूमि से भागते हुए मोहम्मद गौरी का पीछा कर उसे नष्ट कर दिया होता तो यह देश विदेशी आक्रमणों की एक श्रृंखला को रोक सकता था। 1760-17 61 के दौरान यदि मराठों ने उत्तर भारत में सामंजस्य पूर्ण नीति अपनाई होती या बाजीराव प्रथम जैसी सैनिक चपलता दिखाई होती तो देश मुगल व तुर्क शासकों से आजाद हो गया होता तथा यूरोपीयंस की गुलामी से बच सकता था।

आजादी के पश्चात देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी की सामरिक गलतियां हमारे मस्तक पर कैंसर बन कर बैठ गई है। इनसे पीछा छुड़ाने के लिए अतिरिक्त बलिदानों तथा संसाधनों की आवश्यकता हो रही है । कांग्रेस के नेता कहते हैं कि गांधी परिवार ने देश के लिए बहुत कुछ किया। जो किया, क्या वह उनका उत्तरदायित्व नहीं था? क्या गांधी परिवार ने या कांग्रेस ने देश के ऊपर कोई एहसान किया है? मैं स्वयं मोदी सरकार का समर्थक हूं लेकिन मानता हूं कि यदि मोदी सरकार देश के लिए कुछ अच्छा कर रही है या कर पा रही है तो इसमें एहसान जैसी कोई बात नहीं है। जो भी सरकार में है या जिसकी भी सरकार है उसका दायित्व है कि वह देश के लिए सर्वोत्तम तथा अधिकतम करने का प्रयास करें । इस देश में एक अजीबोगरीब विचार पद्धति चल रही है जो किसी का भला करने के पश्चात एहसान दिखाती है । मेरा मानना है कि जो ऐसा करता है उससे पूछा जाना चाहिए कि उसने भला क्यों किया? हिंदुस्तान का नीतिशास्त्र अरब क्षेत्र तथा यूरोपीय देशों के नीतिशास्त्र से पूर्णतया भिन्न है । सनातन धर्म के नीति शास्त्र के अनुसार जिस दिन या जिस क्षण व्यक्ति अपने द्वारा किए गए तथाकथित अच्छे कर्मों या एहसानों को गिनने लगता है अथवा गिनाने लगता है उस दिन या उस क्षण ही उन अच्छे कर्मों का आध्यात्मिक महत्व या नैतिक उपयोगिता समाप्त हो जाती है ।

हां भौतिक शरीर तक सीमित व्यक्तियों के लिए उन कर्मों की उपयोगिता हो सकती है । मैंने तथाकथित अच्छे कर्म लिखा है इसकी भी एक वजह है । सनातन धर्म का एक गूढ़ रहस्य यह भी है के अच्छे कर्म का अस्तित्व होना ही असंभव है । यदि नेहरू या गांधी ना होते तो क्या देश आजाद नहीं होता ? यदि नेहरू ने देश को बहुत कुछ दिया तो उनकी विरासत में तिब्बत तथा कश्मीर की समस्या भी शामिल करनी ही होगी। ऐसा नहीं है की सिर्फ गैर -कांग्रेसी सरकारों ने ही पाकिस्तान तथा चीन के दबाव या तनाव झेले हैं। श्रीमती इंदिरा गांधी ने भी पाकिस्तान तथा तिब्बत की समस्याओं का सामना किया था। श्रीमती इंदिरा गांधी रणनीतिक मामलों में नेहरू से बेहतर प्रधानमंत्री थीं। उन्होंने पाकिस्तान को कमजोर किया । इसके अलावा 1967 में चीन को भी सबक सिखाने में आंशिक सफलता प्राप्त की। यद्यपि सैनिक मामलों के विशेषज्ञ कहते हैं कि 1967 में जो स्थानीय युद्ध हुआ था वह दिल्ली की अनुमति से नहीं हुआ था। यह युद्ध स्थानीय कमांडर के साहस तथा निर्णय क्षमता का परिणाम था। इस युद्ध में भारतीय सेना ने लगभग 80 जवान खोए थे जबकि चीनी सेना को 300 सैनिक खोने पड़े थे।

वर्तमान सरकार के लिए भी नेहरू की सामरिक गलतियां भयानक बोझ साबित हो रही है। इन सामरिक भूलों को ठीक करने की कोशिश में वर्तमान सरकार की कीमती ऊर्जा का क्षरण हो रहा है। जिस राजनीतिक दल के पूर्व शासन में भारतवर्ष को खोपड़ी का यह कैंसर उपहार में मिला था उस राजनीतिक दल के नेता उछल- उछल कर बोल रहे हैं कि फटाफट इसका इलाज करो । वर्तमान सरकार इलाज ही करने की कोशिश करती हुई दिखाई दे रही है लेकिन उसके लिए बड़े स्तर के सामूहिक त्याग तथा संसाधनों की बर्बादी के लिए तैयार होना होगा। कांग्रेस के नेताओं को यह बताना चाहिए कि जब मनमोहन सिंह जी देश के प्रधानमंत्री थे तो उस समय दौलत बेग ओल्डी की हवाई पट्टी को तैयार करने की हिम्मत राजनीतिक नेतृत्व क्यों नहीं जुटा पाया था। कुछ दिन पहले सैन्य अधिकारियों ने खुलासा किया था कि उस समय दौलत बेग ओल्डी हवाई पट्टी पर ग्लोबमास्टर विमानों को उतारने में जो सफलता पाई थी उसमें राजनीतिक नेतृत्व की कोई भूमिका नहीं थी।

वर्तमान सरकार को चाहिए कि जिस प्रकार पाकिस्तान के मामले में क्षेत्र विशेष के सैन्य कमांडरों को अपने स्तर पर निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र किया गया है उसी प्रकार के अधिकार चीन सीमा पर तैनात सैन्य कमांडरों को मिलनी चाहिए। मीडिया की खबरों के अनुसार स्थानीय सैन्य कमांडरों को ऐसे अधिकार मिल चुके हैं । यदि ऐसा है तो निर्णय उचित ही है। सैन्य अधिकारियों को अपनी जरूरतों को बेहिचक ऊपर तक पहुंचाना होगा तथा हथियार तथा अन्य सुविधाओं को जुटाना सिविल अधिकारियों व मंत्रियों का पवित्र कर्तव्य है। जो सोच या व्यक्ति इस काम में आड़े आए उसे तुरंत किनारे करने की जरूरत है ।

इस समय चीन आत्मविश्वास से भरे भारतवर्ष के मनोबल को तोड़ने का प्रयास कर रहा है। एक प्रश्न भारतीयों के मस्तिष्क में उठना स्वाभाविक है कि चीन ने भारत से उलझने के लिए यह समय क्यों चुना ? कई विशेषज्ञों के अनुसार चीन आंतरिक समस्याओं का सामना कर रहा है तथा वहां चल रहे आंतरिक सत्ता संघर्ष के कारण चीन सीमा पर आक्रामक रुख अपना रहा है। इसके अलावा दुनिया के अधिकांश देश कोविड-19 के चलते चीन के खिलाफ है। इस माहौल में दुनिया का ध्यान भटकाने के लिए चीन का शीर्ष नेतृत्व इस तरह के खतरे मोल ले रहा है। लेकिन मेरा मानना है कि जब से भारत के शीर्ष नेतृत्व ने पीओके तथा गिलगित- बालटिस्तान को लेकर अपने इरादे स्पष्ट किए हैं चीन के द्वारा भारत के खिलाफ आक्रामक होना स्वाभाविक था। संसद में गृहमंत्री अमित शाह ने एक प्रश्न का जवाब देते हुए स्पष्ट किया था अक्साई चिन ( जिसे संस्कृत में गो स्थान कहा जाता है )भी भारत का है । उस दिन से हमारे शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व तथा सैनिक नेतृत्व को अतिरिक्त सतर्कता बरतनी चाहिए थी।

अक्साई चिन् पर अपने कब्जे को बनाए रखने के लिए लद्दाख के महत्वपूर्ण बिंदुओं से भारत को बाहर करना चीन के लिए जरूरी लगता है। इसके अलावा अक्साई चिन् से एक नेशनल हाईवे गुजरता है जो तिब्बत तथा चीन के शिंजियांग प्रांत को जोड़ता है। पैंगोंग झील, गलवान घाटी तथा दौलत बेग हवाई पट्टी पर भारत का मजबूत नियंत्रण चीन के इस नेशनल हाईवे के लिए खतरा बन सकता है। इसके अलावा चीन ग्वादर सी पोर्ट तक पहुंचने के लिए पाकिस्तान में जिस मार्ग का निर्माण कर रहा है उसके लिए भी भारत भविष्य में खतरे पैदा कर सकता है। यही कारण है कि चीन पाकिस्तान पर अपने दबदबे को बनाए रखने के लिए भारत को इस क्षेत्र में कमजोर करना चाहता है । यदि चीन अपने उद्देश्य में सफल हुआ तो भारत को उसके चेले पाकिस्तान को नियंत्रित करना असंभव हो जाएगा। पाकिस्तान जो भारत में इस्लामिक राज्य स्थापित करना चाहता है उसके सपनों को एक नई ऊर्जा मिल जाएगी। इसके अलावा नेपाल स्थित माओवादी भी भारत को बड़ी चुनौती देने की तैयारी शुरू कर देंगे ।

देश के अंदर मौजूद कुछ शक्तियां वर्तमान सरकार के सम्मान को ठेस पहुंचते हुए देखना चाहते हैं। उन शक्तियों में एक शक्ति वह है जो इस देश को दारुल इस्लाम बनाना चाहती है। दूसरी शक्ति वह है जो इस देश को ईसा मसीह की कृपा मैं डुबो देना चाहती है। तीसरी शक्ति वह है जो कांग्रेस शासन के समय विशेष अधिकारों का मजा लेते थे उदाहरण के लिए वामपंथी लेखक व अन्य बुद्धिजीवी । देश के अंदर मौजूद इन शक्तियों को परास्त करने के लिए तथा पाकिस्तान व माओवादी नेपाल पर नकेल कसने के लिए चीन को कूटनीतिक व सैनिक शिकस्त देना बेहद आवश्यक है। सैनिक शिकस्त के लिए किसी बड़े युद्ध की आवश्यकता हो यह जरूरी नहीं।

17 जून 2020 को मुख्यमंत्रियों के साथ एक आभासीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने जिस शैली तथा शब्दों के साथ गलवान घटना का जिक्र किया उससे मेरा विश्वास दृढ़ हुआ है कि देश उन पर भरोसा कर सकता है। आजकल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने जिस प्रकार दाढ़ी मूछ बढ़ाई है उससे मुझे उनमें महान मराठा योद्धा शिवाजी की झलक दिखाई दे रही है। लेकिन यदि किसी वजह से वर्तमान सरकार ड्रैगन की नकेल कसने में असफल होती है तो आने वाली पीढ़ियां निवर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी को उसी प्रकार कोसेंगी जैसे आज की पीढ़ी देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू जी को कोसती है।

 

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